Samastipur ke prominent wrutter aarsi prasad singh ki maithili rachanao ka hindi anuwad jankipul webse sabhar:
ऋतुराज-दर्शन
बसंत ऋतु का आगमन हो चुका है
अमलतास के डाली-डाली पर
पत्ती-पत्ती पर
जैसे कोई लाल-हरा-पीले रंग का
महकता हुआ बाल्टी
उढ़ेल गया है
मंद-मंद दक्खिनी हवा से
फूले हुए सरसों के खेत में
जैसे कोई भरा हुआ पीला ‘पोखर’ लहरा रहा हो
आम के मंजर से चू रहा है रस
किसी पागल की तरह
भिनभिनाती है मधुमक्खियाँ
हजारों-हजार
बाग-बगीचे में खिले हुए हैं फूल
अधरों को गोल-गोल धुमाए
ठहाका लगाते हुए, सुगंध के प्रत्येक लहर पर
रसराज के साक्षात् शोभा-दर्शन से
मेरा प्राण आम्रपाली की तरह
नाच-नाच कर
गीत गुनगुनाने लगा है।
राजमार्ग पर स्वछ्न्द चला जा रहा है
ऋतुराज का स्वर्णिम रथ; रथ के ऊपर फड़फड़ा रहा है
पलाश के फूल का लाल झंडा
और झंडे के आगे-पीछे
अनेकों प्रकार के पक्षियों का झुण्ड
चहचहा रहे हैं
इंन्द्रनुष बनाते हुए।
अमलतास के डाली-डाली पर
पत्ती-पत्ती पर
जैसे कोई लाल-हरा-पीले रंग का
महकता हुआ बाल्टी
उढ़ेल गया है
मंद-मंद दक्खिनी हवा से
फूले हुए सरसों के खेत में
जैसे कोई भरा हुआ पीला ‘पोखर’ लहरा रहा हो
आम के मंजर से चू रहा है रस
किसी पागल की तरह
भिनभिनाती है मधुमक्खियाँ
हजारों-हजार
बाग-बगीचे में खिले हुए हैं फूल
अधरों को गोल-गोल धुमाए
ठहाका लगाते हुए, सुगंध के प्रत्येक लहर पर
रसराज के साक्षात् शोभा-दर्शन से
मेरा प्राण आम्रपाली की तरह
नाच-नाच कर
गीत गुनगुनाने लगा है।
राजमार्ग पर स्वछ्न्द चला जा रहा है
ऋतुराज का स्वर्णिम रथ; रथ के ऊपर फड़फड़ा रहा है
पलाश के फूल का लाल झंडा
और झंडे के आगे-पीछे
अनेकों प्रकार के पक्षियों का झुण्ड
चहचहा रहे हैं
इंन्द्रनुष बनाते हुए।
मैं चम्पा-चमेली के स्वर्गीय सौभाग्य पर
पूरी पृथ्वी के साम्राज्य पर
आनंद से बिभोर होकर नाच ही रहा था
कि तभी थम गई दृष्टि
केसरिया बाग के
एक उपेक्षित कोने में ऊभड़-खाबड़, अस्त-व्यस्त
खड़ा था एक बबूल का वृक्ष।
किसी अनाथ की तरह मलीन जीर्ण-जर्जर, दीन-हीन
कहीं भी एक पत्ता नहीं
ठीक ‘साही’ की तरह
पूरी देह पर भरा है काँटा
जैसे आक्रोश की बर्छी लिए
वर्तमान युगबोध में
मचल रहा है
युवा-क्रांति का दिशा-हीन स्वर।
पूरी पृथ्वी के साम्राज्य पर
आनंद से बिभोर होकर नाच ही रहा था
कि तभी थम गई दृष्टि
केसरिया बाग के
एक उपेक्षित कोने में ऊभड़-खाबड़, अस्त-व्यस्त
खड़ा था एक बबूल का वृक्ष।
किसी अनाथ की तरह मलीन जीर्ण-जर्जर, दीन-हीन
कहीं भी एक पत्ता नहीं
ठीक ‘साही’ की तरह
पूरी देह पर भरा है काँटा
जैसे आक्रोश की बर्छी लिए
वर्तमान युगबोध में
मचल रहा है
युवा-क्रांति का दिशा-हीन स्वर।
2. संक्रांति
क्रांति घटित होती है
आकस्मिक रूप से
जैसे कोई अन्य प्राकृतिक घटना।
न ही लाई जाती है, न बनाई जाती है, न गढ़ी जाती है, बर्तन की तरह, किसी कुम्हार की चाक पर।
क्रांति स्वयंभू होती है, जैसे आंधी-बाढ़,
जैसे ज्वालामुखी-विस्फोट,
जैसे उल्का-पात।
वह कोई दीप नहीं है,
जिसे जलाया जा सके।
वह किसी चूल्हे की आग नहीं है, जिसे सुलगाया जा सके।
और न ही वह कोई बाज़ार की वस्तु है, जिसे पैसे-दो-पैसे देकर खरीदा जा सके।
नहीं है वह किसी खेत की घास-फूस, जिसे उपजाया जा सके।
वह हाथ की दीया-सलाई नहीं है, आकाश की बिजली है।
अपने-आप अचानक से
जल उठती है।
और जल उठती है पूरी दुनिया में
क्रांति नहीं है
कोई योजना-बद्ध कार्यक्रम।
योजना और विस्फोट
जीवन के दोनों छोरों पर
जैसे जन्म और मृत्यु।
किसी ‘पाहुन’ की तरह
अनागत का द्वार तोड़ कर
अंदर आ जाती है अचानक
बिना किसी पूर्व सूचना के।
क्रोधी दुर्वासा की तरह
गुस्से से थर-थर काँपते हुए।
क्रांति बुलाई नहीं जाती है, आ जाती है
गर्भ के बच्चे की तरह
अपने-आप; प्रसव-पीड़ा के बाद
समय की पूर्णाहुति होते ही।
सावधान! सावधान!जोर लगाना गलत है! भ्रूणहत्या पाप है!
आकस्मिक रूप से
जैसे कोई अन्य प्राकृतिक घटना।
न ही लाई जाती है, न बनाई जाती है, न गढ़ी जाती है, बर्तन की तरह, किसी कुम्हार की चाक पर।
क्रांति स्वयंभू होती है, जैसे आंधी-बाढ़,
जैसे ज्वालामुखी-विस्फोट,
जैसे उल्का-पात।
वह कोई दीप नहीं है,
जिसे जलाया जा सके।
वह किसी चूल्हे की आग नहीं है, जिसे सुलगाया जा सके।
और न ही वह कोई बाज़ार की वस्तु है, जिसे पैसे-दो-पैसे देकर खरीदा जा सके।
नहीं है वह किसी खेत की घास-फूस, जिसे उपजाया जा सके।
वह हाथ की दीया-सलाई नहीं है, आकाश की बिजली है।
अपने-आप अचानक से
जल उठती है।
और जल उठती है पूरी दुनिया में
क्रांति नहीं है
कोई योजना-बद्ध कार्यक्रम।
योजना और विस्फोट
जीवन के दोनों छोरों पर
जैसे जन्म और मृत्यु।
किसी ‘पाहुन’ की तरह
अनागत का द्वार तोड़ कर
अंदर आ जाती है अचानक
बिना किसी पूर्व सूचना के।
क्रोधी दुर्वासा की तरह
गुस्से से थर-थर काँपते हुए।
क्रांति बुलाई नहीं जाती है, आ जाती है
गर्भ के बच्चे की तरह
अपने-आप; प्रसव-पीड़ा के बाद
समय की पूर्णाहुति होते ही।
सावधान! सावधान!जोर लगाना गलत है! भ्रूणहत्या पाप है!
3. अर्थी का अर्थ
एक मुर्दा जानवर
मैं ढो रहा हूँ।
भारी है,
कंधा दुख रहा है,
किंतु, मैंने जो उठा रखी है लाश
अब भी ढोए जा रहा हूँ।
हो गया हूँ अस्त-व्यस्त,
दर्द से बेहाल, गंध से दूषित नाक थरथरा रही है
थका हुआ, फिर भी जा रहा हूँ।
अजब है मेरी ममता
रो रहा हूँ मगर जा रहा हूँ।
एक कंधा दुखने पर
दूसरे कंधे पर रख लेता हूँ;
कंधा बदलने के दौरान ही पता चलता है
कि अब यह मुर्दा नहीं है।
किंतु, यही मूल जीवन की अर्थी है
जिसे मैं हमेशा से ढो रहा हूँ- हमेशा-हमेशा से- पता नहीं, मंज़िल कौन-सी है? और कब तक ढोना है?
मैं ढो रहा हूँ।
भारी है,
कंधा दुख रहा है,
किंतु, मैंने जो उठा रखी है लाश
अब भी ढोए जा रहा हूँ।
हो गया हूँ अस्त-व्यस्त,
दर्द से बेहाल, गंध से दूषित नाक थरथरा रही है
थका हुआ, फिर भी जा रहा हूँ।
अजब है मेरी ममता
रो रहा हूँ मगर जा रहा हूँ।
एक कंधा दुखने पर
दूसरे कंधे पर रख लेता हूँ;
कंधा बदलने के दौरान ही पता चलता है
कि अब यह मुर्दा नहीं है।
किंतु, यही मूल जीवन की अर्थी है
जिसे मैं हमेशा से ढो रहा हूँ- हमेशा-हमेशा से- पता नहीं, मंज़िल कौन-सी है? और कब तक ढोना है?
4. असीम का आह्वान
एक शांत और सुस्थित झील को
कंकड़ का टुकड़ा
कर देता है अशांत! एक शब्द
मुँह से बाहर आते ही
तरंगित कर देता है
सम्पूर्ण वायुमंडल को।
एक-एक लहर उठकर
चाहती है किनारे के आँचल को छूना चाहे वह कितनी ही दूर क्यों न हो।
क्यों एक-एक कण
आकुल-व्याकुल है
असीम को आलिंगन करने के लिए
अनंत समय की सीमा को लांध कर?
किस रहस्य के उद्घाटन के लिए
कली-कली का प्राण तड़फड़ा रहा है
पंखुड़ी के कारागार में?
किसका प्रेम यह
अनंत, आर-पार लहरा रहा है? जिसमें डूबकर सिर तक
उतर रही है कल-कल करते हुए
पर्वत-शिखर से नद-नदी निर्झर
पत्थर की गहरी नींद को तोड़कर? समुद्र की थाह लेने के लिए
चलता है नमक-पुत्र? सूर्य को आलिंगन करने के लिए
पंख फड़फड़ा रहा है मोम का जूगनू!जैसे कहा जा सकता है
कि समुद्र में जाकर क्या हो जाता है वह? आग की बाँहों में समाकर
क्या हो जाती है मोम-प्रतिमा? गुड़ का स्वाद जानते हुए भी
कोई गूंगा
क्या कह सकता है? और कपूर के सुगंध को चाटकर
अपने-आप शांत हो जाती है ज्योतिशिखा, तब कौन बच जाता है
अपना अनुभव कहने के लिए?
कंकड़ का टुकड़ा
कर देता है अशांत! एक शब्द
मुँह से बाहर आते ही
तरंगित कर देता है
सम्पूर्ण वायुमंडल को।
एक-एक लहर उठकर
चाहती है किनारे के आँचल को छूना चाहे वह कितनी ही दूर क्यों न हो।
क्यों एक-एक कण
आकुल-व्याकुल है
असीम को आलिंगन करने के लिए
अनंत समय की सीमा को लांध कर?
किस रहस्य के उद्घाटन के लिए
कली-कली का प्राण तड़फड़ा रहा है
पंखुड़ी के कारागार में?
किसका प्रेम यह
अनंत, आर-पार लहरा रहा है? जिसमें डूबकर सिर तक
उतर रही है कल-कल करते हुए
पर्वत-शिखर से नद-नदी निर्झर
पत्थर की गहरी नींद को तोड़कर? समुद्र की थाह लेने के लिए
चलता है नमक-पुत्र? सूर्य को आलिंगन करने के लिए
पंख फड़फड़ा रहा है मोम का जूगनू!जैसे कहा जा सकता है
कि समुद्र में जाकर क्या हो जाता है वह? आग की बाँहों में समाकर
क्या हो जाती है मोम-प्रतिमा? गुड़ का स्वाद जानते हुए भी
कोई गूंगा
क्या कह सकता है? और कपूर के सुगंध को चाटकर
अपने-आप शांत हो जाती है ज्योतिशिखा, तब कौन बच जाता है
अपना अनुभव कहने के लिए?